अच्चेलक्कं लोचो वोसट्टसरीरदा य पडिलिहणं ।
एसो हु लिंगकप्पो चदुव्विहो होदि उस्सग्गे॥82॥
वस्त्र रहित अरु केशलोंचयुत और देह की ममता हीन ।
प्रतिलेखन1 में चार बाह्य लिंग धारें वे उत्सर्ग पथिक2॥82॥
अन्वयार्थ : यहाँ उत्सर्गलिंग में चार प्रकार हैं - आचेलक्य अर्थात् वस्त्रादि सर्व परिग्रह का त्याग, लोंच/हस्त से केशों का लोंचन/निकालना, व्युत्सृष्ट शरीरता/देह से ममत्व का त्याग करके देह में रहना, प्रतिलेखन/जीवदया का उपकरण मयूरपिच्छिका रखना- ये चार निर्ग्रन्थलिंग के चिः हैं ।
सदासुखदासजी