गंथच्चाओ लाघवमप्पडिलिहणं च गदभयत्तं च ।
संसज्जाणपरिहारो परिकम्मविवज्जाणा चेव॥85॥
परिग्रह प्रतिलेखन एवं भय निर्ग्रन्थों को नहीं अहो ।
परिषहजय अरु संगत्याग से कर्म निर्जरा बहुत कहो॥85॥
अन्वयार्थ : जो निर्ग्रन्थ होता है, उसके परिग्रह की मूर्छा ही नष्ट हो जाती है, स्वप्न में भी चाह उत्पन्न नहीं होती; अत: परिग्रहत्याग गुण निर्ग्रन्थलिंग से ही होता है । वस्त्रादिसहित के परिग्रह में ममता रहती ही है और परिग्रहत्यागी के आत्मा के ऊपर से सर्व भार उतर गया है, इसलिए हलकापना/निर्भारपना होता है और प्रतिलेखन अर्थात् अधिक शोधना नहीं हो पाता, इसलिए वस्त्रसहित जो ग्यारह प्रतिमा के धारक हैं, वे ही वस्त्रादि को अच्छी तरह शोध सकते हैं और निर्ग्रन्थों के मयूरपिच्छिका से शरीर पर फेरना, यह ही अल्प प्रतिलेखन है ।
सदासुखदासजी