+ आगे और भी निर्ग्रन्थलिंग के गुण कहते हैं- -
विस्सासकरं रूवं अणादरो विसय-देह-सुक्खेसु ।
सव्वत्थ अप्पवसदा परिसह-अधिवासणा चेव॥86॥
सब को हो विश्वास देह अरु विषय-सुखों में आदरहीन ।
परिषहजय करते मुनिवर विचरें सर्वत्र न पर-आधीन॥86॥
अन्वयार्थ : यह निर्ग्रन्थलिंग सर्व के विश्वासकारी है, इसलिए यह निर्ग्रन्थता परजीवों का घात करने वाली नहीं, इसमें शस्त्रादि का ग्रहण नहीं और शरीर का संस्कार नहीं; अत: कुशील नहीं है । विषयों में तथा सुख में अनादरपना प्रगट होता है और सर्व क्षेत्रों में आत्मवशपना होता है, इसलिए निर्ग्रन्थलिंगधारी जहाँ प्रासुक भूमि दिखे, वहाँ ही गमन करते हैं, शयन करते हैं या आसन करते हैं । उन्हें यह भय नहीं कि मैं यहाँ गमन करूँगा या शयन करूँगा तो हमारी यह वस्तु चली जायेगी या लुट जाऊँगा या मुझे इस क्षेत्र में यह कार्य है, इसलिए गमन करना है/जाना है या नहीं करना - इत्यादि सर्व क्षेत्रों में पराधीनता रहित होते हैं और शीत, उष्ण, दंशमशक, क्षुधा, तृषा आदि बाईस परीषहों को सहना होता है । इस प्रकार के गुण निर्ग्रन्थलिंग में ही प्रगट होते हैं ।

  सदासुखदासजी