लोचकदे मुंडत्तं मुंडत्ते होइ णिव्वियारत्तं ।
तो णिव्वियाकरणो य पग्गहिददरं परक्कमदि॥92॥
केशलोंच से मुंडन होता मुंडन से नहिं होय विकार ।
निर्विकार परिणति से अतिशय रत्नत्रय में हो पुरुषार्थ॥92॥
अन्वयार्थ : लोंच करने से मंुडन होता है, मुंडन से निर्विकारपना होता है । इससे अंतरंग विकार अर्थात् लीलासहित गमन, शृंगार-कटाक्ष इत्यादि का तो मुंडन से अभाव और बहिरंग विकार शरीर में मलधारण, खाज, दाद इत्यादि होते हैं; इसलिए अंतरंग-बहिरंग विकार रहितपने से ही अतिशय रूप रत्नत्रय में ही उद्यमवंत होता है ।
सदासुखदासजी