आणक्खिदा य लोचेण अप्पणो होदि धम्मसड्ढा य ।
उग्गो तवो य लोचो तहेव दुक्खस्स सहणं च॥94॥
केशलोंच हो निर्ममता से और झलकती धर्म प्रतीति ।
कायक्लेश नामा तप अतिशय और दु:ख सहने की रीति॥94॥
अन्वयार्थ : लोंच/हाथों से केशों को निकालने से अपनी आत्मा वश हो जाती है तथा शरीर सम्बन्धी सुख में आसक्ति रहित हो जाता है । जो देह के सुख में आसक्त होगा, वह केशलोंच कैसे करेगा? तथा लोंच तो स्वाधीनता से होता है । यदि बालों का मुंडन करावें तो नाई के तथा अन्य करा देने वाले के आधीन होना पडता है और केश रखते हैं तो केशों में आसक्ति होगी तथा उनको ऊँछना (बालों को सँभालना, कंघी करना), धोना, सुखाना - इत्यादि पराधीनता (आती है) और संयम का नाश होता है, इसलिए लोंच से ही स्वाधीनता और संयम की रक्षा होती है । लोंच से रंचमात्र भी संयम नहीं बिगडता है, याचना भी नहीं करनी पडती और पराधीनता भी नहीं रहती, इसलिए निर्दोष है ।

  सदासुखदासजी