+ अब लिंग का व्युत्सृष्ट शरीरता अर्थात् देह-संस्कार रहितता नामक तीसरा चिह्न तीन गाथाओं द्वारा कहते हैं- -
सिण्हाणब्भंगुव्वट्टणाणि णहकेसमंसु संठप्पं ।
दंतोठ्ठकण्णमुहणासियच्छिभमुहाइं संठप्पं॥95॥
उबटन स्नान तैल-मर्दन संस्कार नहीं नख केशों का ।
दन्त ओष्ठ मुख कर्ण नासिका भृकुटी और न नेत्रों का॥95॥

  सदासुखदासजी