जल्लविलित्तो देहो लुक्खो लोयकदविंयडबीभत्थो ।
जो रूढणक्खलोमो सा गुत्ती बंभचेरस्स॥97॥
व्याप्त पसीने से, रूखा वीभत्स ग्लानिमय तन दिखता ।
अध टूटे नख रोम सहित तन से हो ब्रह्मचर्य रक्षा॥97॥
अन्वयार्थ : जो जिनलिंग का धारक ऐसा ब्रह्मचारी/आत्मस्वरूप में चर्या करने वाले दिगम्बर यति, वे यावज्जीव/जीवनपर्यंत स्नान और अभ्यंग/तैलमर्दन तथा उद्वर्तन/उबटन, नख-केशों का संस्कार तथा दंत, ओष्ठ, कर्ण, मुख, नासिका, नेत्र, भ्रकुटी आदि शब्द से हस्त-पादादि के संस्कार का त्याग ही कर देते हैं । जल से देह का प्रक्षालन/धोना, इसका नाम स्नान है । यदि स्नान शीतल जल से करते हैं तो जलकायिक जीवों का और त्रस जीवों का घात होता है तथा कर्दम का/बालुका का मर्दन से वा जल के क्षोभ से वा जल के ऊपर काई/कमोदनी के घात से वा जलचर जो मत्स्य, मंडूक, जोंक आदि से लेकर त्रस-स्थावर जीवों की विराधना से महान असंयम होता है और यदि उष्ण जल से स्नान करेंगे तो के भूमि ऊपर चलने वाले कीडी-कीडा
सदासुखदासजी