रयसेयाणमगहणं मद्दव सुकुमालदा लघुत्तं च ।
जत्थेदे पंच गुणा तं पडिलिहणं पसंसंति॥100॥
धूल, पसीना लगे न किंचित् कोमल और सुखद स्पर्श ।
भार-विहीन, पाँच-गुणयुत, प्रतिलेखन कहते श्रेष्ठ जिनेन्द्र॥100॥
अन्वयार्थ : गमन-आगमन में तथा ज्ञानोपकरण ग्रन्थ, संयमोपकरण पिच्छिका, शौचोपकरण कमंडलु ग्रहण/उठाना, निक्षेपण/रखना तथा मल-मूत्रादि का क्षेपना/त्यागना, अस्नान, आसन, शयन - इनके पहले नेत्रों से अवलोकन करके मयूर-पिच्छिका से प्रतिलेखन करने के बाद में प्रवर्तन करना और शरीर को उद्वर्तन अर्थात् सीधा शयन करना, परिवर्तन/करवट से सोना, प्रसारण/हाथ-पैर पसारना तथा संकोचना और स्पर्शन इत्यादि क्रियाओं में मयूरपिच्छिका का जमीन पर, शरीर तथा उपकरण पर फेरकर कार्य करना - यह यत्नाचार की परम हद/मर्यादा है । इसलिए साधु की चलना, हिलना, बैठना, उठना, सोना, संकोचना, पसारना, पलटना, रखना, उठाना आदि सर्व क्रियायें पिच्छिका से शोधे/प्रतिलेखन बिना नहीं होती हैं और स्वयं का पक्ष/दयाधर्म, उसे पालने का चिः यह मयूरपिच्छिका है ।
मयूर-पिच्छिका सहितपना लोगों का प्रतीति कराने वाला चिः है, इसलिए ये साधु कुंथवादि जीवों की रक्षा के लिये पिच्छिका रखते हैं तो हम जैसे बडे जीवों को कैसे बाधा करेंगे? यह पिच्छिका सहितपना संयम का प्रतिबिम्ब है, जो साक्षात् संयम के रूप को दिखाता है । इस मयूरपिच्छिका में पाँच गुण हैं । वही कहते हैं -
एक तो सचित्त-अचित्त/गीली-सूखी रज/धूल नहीं लगती ।
दूसरा गुण पसीना नहीं लगता । यदि पसीना लगे तो सूखने पर कडक हो जाये, तब तो जीवों को बाधाकारक होगी । अत: मयूर-पिच्छिका में पसीना लगता ही नहीं ।
तीसरा मार्दव गुण अर्थात् कोमलता - यदि जीवों की आँखों में फिरे तो भी किंचित् मात्र भी पीडाकारी नहीं होती ।
चौथा गुण सुकोमलता - जिसका स्पर्श सुहावना लगे ।
पाँचवाँ गुण लघुपना/अत्यन्त हलकापना । पीछी के नीचे जीव दबता नहीं, मसला जाता नहीं, बोझ नहीं लगता । ये पाँच गुण जिसमें हों, वह प्रतिलेखन है । दयावान भगवान उसकी प्रशंसा करते हैं ।
इति सविचार भक्तप्रत्याख्यान के चालीस अधिकारों में लिंग नामक दूसरा अधिकार बाईस गाथाओं में पूर्ण किया ।
सदासुखदासजी