+ अब शिक्षा नामक अधिकार त्रयोदश गाथाओं में कहते हैं- -
णिउणं विउलं सुद्धं णिकाचिदमणुत्तरं च सव्वहिदं ।
जिणवयणं कलुसहरं अहो य रत्ती य पढिदव्वं॥101॥
निपुण विपुल अरु शुद्धनिकाचित अनुत्तर तथा सर्वहितकार ।
अहो निरन्तर पठन योग्य है जिन प्रवचन ये कालुषहार॥101॥
अन्वयार्थ : भो आत्मन्! यह जिनेन्द्र भगवान का वचन दिन-रात निरंतर पढने योग्य है । कैसा है जिनवचन? प्रमाण-नय के अनुकूल जीवादि पदार्थ का निरूपण करता है, इसलिए निपुण है । प्रमाण-नय-निक्षेप-निरुक्ति-अनुयोग इत्यादि विकल्पों द्वारा जीवादि पदार्थ का विस्तार सहित निरूपण करता है, अत: विपुल है । पूर्वापर विरोधादि दोषों से रहित है, अत: शुद्ध है । जो अर्थ प्रकाशित करता है, उससे किसी प्रकार भी चलायमान नहीं होता, अत्यन्त दृढपने के कारण निकाचित है । जिनवचन से उत्कृष्ट त्रिलोक में और कोई नहीं, इसलिए अनुत्तर है । सर्व प्राणियों का हितकारक है, किसी का विराधक नहीं, इस कारण सर्वहितरूप है । द्रव्यमल जो ज्ञानावरणादि और भावमल रागादि, क्रोधादि उनका नाश करने के कारण कलुषहर है । ऐसे जिनेन्द्र के वचनों का ही निरंतर पठन-पाठन करना योग्य/उचित है ।

  सदासुखदासजी