आदहिदपइण्णा भावसंवरो णवणवो य संवेगो ।
णिक्कंपदा तवो भावणा य परदेसिगत्तं च॥102॥
आतम-हित का बोध, भाव-संवर, वृद्धिंगत हो संवेग ।
निष्कम्पता, भावना तप की देय अन्य को भी उपदेश॥102॥
अन्वयार्थ : आत्महित का परिज्ञान जिनागम से ही होता हैऔर अज्ञानीजन इन्द्रिय जनित सुख को ही हितकर जानते हैं । कैसा है इन्द्रिय जनित सुख? वेदना का इलाज है । क्षुधा की वेदना होगी, उसे भोजन की अति चाह उपजेगी, वही भोजन करने में सुख मानेगा और जब तृषावेदना पीडा करेगी, उसे जल की चाह उपजेगी, वही जल पीने में सुख मानेगा । जिसे शीतवेदना की पीडा होगी, वही रुई के वस्त्रादि चाहेगा, तब वह बहुत ओढने में सुख मानेगा । जिसे गर्मी उत्पन्न होगी, वही शीतल पवनादि का उपचार चाहेगा । जिसे कामादि वेदना उपजेगी, वही दुर्गन्ध अंग जनित जगत-निंद्य मैथुन चाहेगा और जिसके वेदना/पीडा ही नहीं; वह खाना, पीना, ओढना, पवन लेना, कामसेवन करना - ये प्रगट संक्लेशरूप कार्य हैं, इनकी वांछा नहीं करेगा । इसलिए अज्ञानी जीव यह इन्द्रिय जनित सुख-दुह्नख का इलाज करने मात्र हितरूप जानकर सेवन करता है और सम्यग्ज्ञानी जीव इन विषयों को "तृष्णा बढाने वाले, आकुलता उत्पन्न करने वाले, पराधीनता सहित, अल्पकाल स्थिरता को ढोते रहने वाले, भय को करने वाले, दुर्गति में ले जाने वाले" जानकर त्याग ही करते हैं ।
जो चारित्रमोह के उदय से वा शरीर की शिथिलता से वा देश-काल त्यागने योग्य नहीं मिलने से इन्द्रिय विषयों को भोगते दिखते हैं, परन्तु अंतरंग में अत्यन्त उदासीन रहते हैं । जैसे कोई रोगी कडवी औषधि पीता है या सेंक करता है या फोडे को चिरवाता है, कटवाता है; लेकिन उसे अत्यन्त बुरा जानता है, तथापि रोग की वेदना सही नहीं जाती, इस कारण कडवी औषधि भी प्रेम से पीता है, सेक भी करता है, दुर्गंधित तेलादि भी लगाता है; परन्तु अंतरंग में यह जानता है कि "वह धन्य दिन कब आयेगा कि जिस दिन मैं ये औषधि सेवन/अंगीकार नहीं करूँगा ।" वैसे ही सम्यग्ज्ञानी भोगों को भोगता हुआ भी विरक्त जानना । इसलिए जिनागम से ही आत्महित का ज्ञान होता है । जिनागम के अभ्यास से ही मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग के अभाव से भाव संवर होता है ।
जिनागम के अभ्यास से ही धर्म में वा धर्म के फल में तीव्र अनुराग निरंतर बढने से संवेग होता है । जिनागम के अभ्यास से रत्नत्रय धर्म में अत्यन्त निष्कंपता होती है । जो जिनागम से दर्शन-ज्ञान-चारित्र अचल निजरूप जानेगा, वही धर्म में निष्कंपता को धारण करेगा और जिनागम से स्व-पर का भेद जानेगा, वही कषाय मल को आत्मा से दूर करने के लिये तपश्चरण करेगा । अत: जिनागम से ही तपोभावना होती है तथा जिसने जिनेन्द्रदेव के स्याद्वाद रूप आगम को अच्छी तरह जाना हो, उसके ही प्रमाण-नय द्वारा यथायोग्य चारों अनुयोगों का उपदेश दातापना बनता है । इसलिए जिनागम से ही परोपदेशिता आती है । ये जिनागम के सेवन के गुण कहे ।
सदासुखदासजी