+ अब आत्महित जानने से क्या होता है? वही कहते हैं- -
णाणेण सव्वभावा जीवाजीवासवादिया तहिया ।
णज्जदि इहपरलोए अहिदं च तहा हियं चेव॥103॥
जीव अजीव आस्रव आदिक सर्व तत्त्व का होता ज्ञान ।
लोक और परलोक तथा हित और अहित का भी हो ज्ञान॥103॥
अन्वयार्थ : आत्मज्ञान से ही जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्षरूप सर्व पदार्थ को सत्यार्थ जानते हैं तथा इहलोक-परलोक संबंधी हिताहित को जानते हैं ।

  सदासुखदासजी