+ आगे जो आत्महित नहीं जानता, उसके दोष दिखाते हैं- -
आदहिदमयाणंतो मुज्झदि मूढो समादियदि कम्मं ।
कम्मणिमित्तं जीवो परीदि भवसायरमणंतं॥104॥
आतम-हित को नहिं जाने वह मूढ़ करे कमाब का बन्ध ।
कर्मबन्ध से भ्रमण करे वह जीव भवार्णव काल अनन्त॥104॥
अन्वयार्थ : आत्महित को नहीं जानने वाला मूढ मोह को प्राप्त होता है, मोह से कर्मबंध होता है और कर्मबंध से जीव अनंत संसार में परिभ्रमण करता है ।

  सदासुखदासजी