ताव खमं मे कादुं सरीरणिक्खेवणं विदुपसत्थं ।
समयपडायाहरणं भत्तपइण्णाणियमजण्णं॥165॥
तब तक देह त्याग है मुझको विज्ञ प्रशंसित आराधन ।
ध्वज फहराऊँ यज्ञ और व्रत भक्त प्रत्याख्यान ग्रहण॥165॥
अन्वयार्थ : पूर्वकाल में अनुभव किया जो स्व-पर रूप पदार्थ, उसे याद करना, स्मृति है । यह स्मृति वस्तु को यथावत् जानने वाला मतिज्ञान है, इसकी स्मृति से ही श्रुतज्ञान होता है । स्मृति से ही चारित्र का पालन होता है, इसलिए सर्व व्यवहार परमार्थ का मूल स्मृति ही है । अत: जब तक मेरी स्मृति नहीं बिगडे, तब तक सल्लेखना करने में सावधान होकर उद्यम करना । वैसे ही विचित्र तप के द्वारा कर्म की विपुल निर्जरा करने का इच्छुक जो मैं, उसकी शक्ति के घटने से आतापन योगादि तप करने की सामर्थ्य नहीं बिगडे, तब तक सल्लेखना में उद्यमी होनाअथवा जब तक मेरे मन-वचन-काय रूप योगों की प्रवृत्ति पराधीन न हो, तब तक मुझे सल्लेखना में उद्यमी होना तथा

  सदासुखदासजी