अप्पपरियम्म उवधिं बहुपरियम्मं च दोवि वज्जेइ ।
सेज्जा संथारादी उस्सग्गदं गवेसंतो॥168॥
जिसमें हो परिकर्म अल्प1 या जिसमें हो परिकर्म अधिक ।
परिग्रह त्यागी तजता शय्या संस्तर आदिक उपधि सभी॥168॥
अन्वयार्थ : उत्सर्ग पद/सर्वोत्कृष्ट त्याग पद का अवलोकन करने वाला साधु जिसमें अल्प परिकर्म/ अल्प शोधनादि और बहु परिकर्म अर्थात् जिसमें बहुत शोधन - अवलोकन हो - ऐसी शय्या या संस्तर इत्यादि दोनों उपधि का त्याग करते हैं ।

  सदासुखदासजी