
आलोयणाए सेज्जासंथारुवहीण भत्तपाणस्स ।
वेज्जावच्चकराणं य सुद्धी खलु पंचहा होइ॥171॥
शय्या संस्तर और परिग्रह भक्तपान की शुद्धि कही ।
वैयावृत्त कारक की शुद्धि मिलकर पाँच प्रकार कही॥171॥
अन्वयार्थ : आलोचनाशुद्धि, शय्या-संस्तरशुद्धि, उपकरणशुद्धि, भक्तपानशुद्धि तथा वैयावृत्त्यकरणशुद्धि - ये पंचप्रकार की शुद्धियाँ हैं । उसमें मायाचार/मन की कुटिलता और असत्य वचन से रहित गुरुओं को अपने दोष बतलाना, यह आलोचनाशुद्धि है । स्त्री-नपुंसक-तिर्यंचादि रहित निर्दोष स्थान में शय्या-संस्तर करना, यह शय्या-संस्तरशुद्धि है । पीछी, कमण्डल, शरीर, तथा शास्त्र में ममत्व का त्याग करना उपकरण शुद्धि है । उद्गमादि छियालीस दोषरहित, याचनारहित, अति गृद्धतारहित निर्दोष भोजन-पान करना, यह भक्तपानशुद्धि है । संयमी के योग्य वैयावृत्ति के अनुक्रम को जानने वाले पर हित में उद्यमी एवं वात्सल्य के धारक साधुओं का संग मिलना, यह वैयावृत्त्यकरणशुद्धि है ।
सदासुखदासजी