
अहवा दंसणणाणचरित्तसुद्धी य विणयसुद्धी य ।
आवासयसुद्धी वि य पंच वियप्पा हवदि सुद्धी॥172॥
अथवा दर्शन शुद्धि एवं ज्ञान तथा चारित्र शुद्धि ।
विनय और आवश्यक शुद्धि मिलकर पाँच प्रकार कही॥172॥
अन्वयार्थ : अथवा नि:शंकित, नि:कांक्षित आदि सम्यक्त्व के गुणों में आत्म-परिणाम का होना, यह दर्शनशुद्धि है । काल अध्ययनादि ज्ञान की विनयपूर्वक ज्ञान की आराधना, यह ज्ञानशुद्धि है । पंचविंशति/पच्चीस भावना सहित चारित्र पालना, यह चारित्रशुद्धि है । इस लोक संबंधी राज्यसंपदा, धनसंपदा, भोगसंपदा और परलोक संबंधी देवलोक आदि की भोगसंपदा में वांछा नहीं करना, यह विनयशुद्धि है । मन से सावद्ययोग से निवृत्ति होना तथा जिनेन्द्र के गुणों में अनुराग करना, जिनवंदना में प्रवर्तना, पूर्व में किये दोषों की निन्दा करना, शरीर की असारता और उपकार रहितपने की भावना भाना, यह आवश्यक शुद्धि है । ऐसी भी ये पंचशुद्धियाँ समाधिमरण की कारण हैं ।
सदासुखदासजी