+ अब पंच प्रकार का विवेक कहते हैं- -
इंदियकसायउवधीण भत्तपाणस्स चावि देहस्स ।
एस विवेगो भणिदो पंचविधो दव्वभावगदो॥173॥
इन्द्रिय और कषाय, उपधि अरु भोजनपान विवेक कहा ।
देह विवेक कहा आगम में द्रव्य-भाव द्वय भेद कहा॥173॥
अन्वयार्थ : इन्द्रिय विवेक, कषाय विवेक, भक्तपान विवेक, उपधि विवेक और देह विवेक - ये पाँच प्रकार के विवेक हैं । इनके द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो-दो भेद हैं ।
नेत्रादि इन्द्रियों के विषयों में राग-द्वेष रूप नहीं प्रवर्तना, यह इन्द्रिय विवेक है । अनेक प्रकार के द्रव्य, रत्न, नगर, देश, वन, वापिका, महल, मन्दिर, स्त्री, सेना, सामन्त इत्यादि के अवलोकन में नहीं प्रवर्तना, यह चक्षुरिन्द्रिय विवेक है । द्रव्य रूप जानना और इनके देखने के परिणाम ही नहीं करना, यह भाव चक्षु विवेक है ।
चेतन के शब्द तथा वीणा, बाँसुरी, मृदंग इत्यादि अचेतन के शब्द तथा राजकथा, भोजनकथा, स्त्रीकथा, देशकथा वा अनेक प्रकार के राग करने वाले गीत, हास्य, विनोद, शृंगार कथा तथा जिसमें युद्ध का कथन है - ऐसी कामप्रवर्धिनी कथा, काव्य ग्रन्थ, नाटक ग्रन्थ तथा रागी-द्वेषी, कामी-क्रोधी-लोभी - ऐसे कुदेव, कुगुरु की कथा; हिंसा के पोषने वाले कुधर्म की कथा तथा लोगों के विषय, कषाय, कलह, अभिमान, भोग, उपभोगरूप कथा सुनने में नहीं प्रवर्तना, वचन से नहीं कहना और भावों को भी इनमें नहीं लगाना - यह कर्णेन्द्रिय विवेक है ।
स्वभाव से ही सुगंध तथा परस्पर संयोग से उत्पन्न सुगंध जिनमें पायी जाती है - ऐसे स्त्रीपुरुष, चन्दन, कपूर, कस्तूरी इत्यादि द्रव्यों की गंध के ग्रहण में काय से, वचन से प्रवर्तन नहीं करना और परिणामों से भी अभिलाषा छोडना, यह घ्राणेन्द्रिय विवेक है । अनेक प्रकार के भोजनादि रसनेन्द्रिय के विषयों में मन-वचन-काय से नहीं प्रवर्तना, यह रसनेन्द्रिय विवेक है । स्त्रियों के कोमल अंग तथा कोमल शय्या, आसन, शीत-उष्ण जलादि वस्तुओं में मन-वचन-काय से स्पर्शने का अभाव यह स्पर्शनेन्द्रिय विवेक हैऔर ऐसे ही अशुभ के स्पर्शन, स्वादन, सूँघन, अवलोकन तथा श्रवण में मन-वचन-काय से ग्लानि भाव का छोडना - यह इन्द्रिय विवेक है ।
तथा भृकुटी चढाना, लाल नेत्र करना, ओष्ठ चबाना, दाँतों की कटकटाहट करना, शस्त्र ग्रहण करना तथा मारूँ, छेदूँ-भेदूँ, काटूँ-जलाऊँ, विध्वंस करूँ - ऐसे वचन बोलना, ये दुष्ट बैरी मर जायें, जल जायें, लुट जायें, बिगड जायें इत्यादि क्रोध जनित प्रवृत्ति का अभाव करके परम क्षमा रूप होना - यह क्रोधकषाय विवेक है ।
काय की कठिनता करना, मस्तक ऊँचा करना, ऊँचे आसन बैठकर जगत की निन्दा करना, अपनी प्रशंसा करना, पूज्य पुरुषों की पूजा का अभाव करना, गुणवंतों का अनादर करना, ज्ञानियों से, तपस्वियों सेभी सत्कार चाहना तथा मुझसे अधिक लोक में कौन कुलवान है? कौन ज्ञानवान है? कौन तपस्वी है? कौन बलवान है? कौन रूपवान, कलावान, गुणवान, शूरवीर, दातार, उद्यमी, उदार है? कोई भी अधिक नहीं दिखता, इत्यादि मान-कषाय जनित प्रवृत्ति का मार्दवगुण के द्वारा अभाव करना - यह मानकषाय विवेक है ।
तथा कहना कुछ, करना कुछ, दिखाना कुछ, बोलने-चालने में, तप में, उपदेश में मायाचार जनित प्रवृत्ति का आर्जव गुण के द्वारा अभाव करना - यह मायाकषाय विवेक है ।
योग्य-अयोग्य का विचार नहीं करना और पाँचों इन्द्रियों के विषयों में अति लम्पटता से प्रवृत्ति करना, त्यागने योग्य को नहीं छोडना, पर वस्तु में आत्मबुद्धि करना, इत्यादि लोभ-कषाय जनित प्रवृत्ति का शौच गुण के द्वारा अभाव करना - यह लोभकषाय विवेक है ।
अयोग्य आहार-पान नहीं करना, छियालीस दोष तथा छह कारण, चौदह मल तथा बत्तीस अंतराय को टालकर शुद्ध भोजन करना, यह भक्तपान विवेक है । रत्नत्रय का साधक कारण जो शरीर तथा दया का उपकरण मयूर-पिच्छिका, ज्ञान का उपकरण शास्त्र, शौच का उपकरण कमंडलु, इनके अलावा अन्य शास्त्र, वस्त्र, आभरण, वाहन आदि उपकरणों का मन-वचन-काय से ग्रहण नहीं करना, यह उपधि नामक विवेक है । देह में ममत्व भाव रहित रहना - यह देह विवेक है ।

  सदासुखदासजी