
सव्वत्थ दव्वपज्जयममत्तिसंगविजडो पणिहिदप्पा ।
णिप्पणयपेमरागो उवेज्ज सव्वत्थ समभावं॥175॥
सर्व द्रव्य पर्यायों के प्रति ममता तजे प्रति निहत जीव ।
प्रणय प्रेम अरु राग रहित सर्वत्र रहे समभाव सदीव॥175॥
अन्वयार्थ : सर्वत्र/सर्व देश में प्राणी हितात्मा अर्थात् प्रकर्षता से स्थापित किया है वस्तु के यथार्थ स्वरूप के ज्ञान में आत्मा जिसने । ऐसा सम्यग्ज्ञानी वह द्रव्य अर्थात् जीव-पुद्गलादि और पर्याय अर्थात् शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्रादि, इनमें ममता रूप परिणाम वही संग अर्थात् परिग्रह है, उससे रहित होते हैं । वे अपने रोग रहितपने की, ऋद्धि, बल, ऐश्वर्य सहितपने की, देवपने की, चक्रवर्तीपने की, अहमिन्द्रपने की तथा देवादि के भोग, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण की वांछा नहीं करते तथा पर्यायों में स्नेह, प्रीति, राग/आसक्ति से रहित, सर्व द्रव्य, पर्यायों में समभाव/वीतरागता को प्राप्त होते हैं, उन्हीं के उपधित्याग होता है ।
सदासुखदासजी