
जा उवरि उवरि गुणपडिवत्ती सा भावदो सिदी होदि ।
दव्वसिदी णिम्मेणी सोवाण आरुहंतस्स॥176॥
ऊपर चढ़ने वाले को सीढ़ी कहलाती द्रव्य-श्रिति ।
ऊपर-ऊपर गुण प्रतिपत्ति1 कहलाती है भाव-श्रिति॥176॥
अन्वयार्थ : ज्ञानाभ्यास तथा तपश्चरण करने में प्रतिदिन चढते/बढते परिणाम, वह द्रव्य श्रिति है और ऊपर-ऊपर/ऊँचे-ऊँचे ज्ञान, श्रद्धान, समभावरूप गुणों की प्राप्ति को भाव श्रिति कहते हैं । जैसे ऊँची भूमि पर चढने वाले पुरुष को ऊर्ध्वभूमि पर चढने में अवलम्बन रूप सीयिढयों की पंक्ति या निह्नश्रेणी/नसैनी होती है ।
सदासुखदासजी