दव्वसिदिं भावसिदिं अणिओगवियाणया विजाणंता ।
ण खु उढ्ढगमणकज्जे हेठ्ठिल्लपदं पसंसंति॥178॥
चारों अनुयोगों के ज्ञायक द्रव्य-भाव-श्रिति जाननहार ।
ऊर्ध्वगमन के लिए श्रेष्ठ नहिं माने पग नीचे रखना॥178॥
अन्वयार्थ : द्रव्यश्रिति और भावश्रिति को जानने वाले, चारों अनुयोग के ज्ञाता एवं चरणानुयोग रूप आचारांग के ज्ञाता साधु ऊर्ध्वगमन रूप कार्य के लिये नीचा पद धारण करने की प्रशंसा नहीं करते ।

  सदासुखदासजी