
गणिणा सह संलाओ कज्जं पइ सेसएहिं साहूहिं ।
मोणं से मिच्छजणे भज्जं सण्णीसु सजणे य॥179॥
आचायाब से संभाषण हो शेष साधु से अल्प प्रलाप ।
अज्ञानी से मौन रहें, ज्ञानी से करें योग्य व्यवहार॥179॥
अन्वयार्थ : साधु को आचार्य से ही वचनालाप करना उचित है । अन्य साधुओं से किसी कार्य वश वचनालाप एवं अधिक संभाषण नहींकरना । अत: आचार्य से सहित वचनालाप शुभ परिणामों का कारण है और संशयादि दोषों का निवारण करता है, परम संवर का कारण है । अन्य से वचनालाप करने में प्रमादी हो जाता है या अशुभ परिणाम हो जाते हैं । अभिमान आदि पुष्ट हो जाते हैं तथा पाछिली कथा/बीते हुए गृहस्थ जीवन की कथा एवं विकथा में प्रवृत्ति हो जाती है, इसलिए अन्य साधुजनों से कदाचित् प्रयोजन हो तो प्रामाणिक वचनरूप प्रवर्तन करना, अन्य प्रकार से वचनालाप नहीं करना । यदि अन्य साधुओं से वचनालाप करते हैं तो अपने समान जानकर सुख, दु:ख, लाभ, अलाभ, मान, अपमान रूप कथा करने लग जायें तो संयमभाव बिगडने से संसार में डूब जाते हैं तथा मिथ्यादृष्टियों के साथ मौन ही रखना । जिनको अपने हित-अहित का ज्ञान नहीं, उनसे वचनालाप करने से बिगाड ही होता है । मंदकषायी सज्जन और ज्ञानीजनों में जो अपनी तथा पर की धर्म की वृद्धि होती जाने तो कदाचित् वचनालाप करें या न भी करें ।
सदासुखदासजी