
तो पच्छिमंमि काले वीरपुरिससेवियं परमघोरं ।
भत्तं परिजाणंतो उवेदि अब्भुज्जदविहारं॥181॥
वीरों से सेवित अति दुष्कर भक्त-त्याग2 वांछक मुनिराज ।
शूरवीर से रत्नत्रय-पथ विचरें श्रिति के अन्तिम भाग॥181॥
अन्वयार्थ : भावों की श्रिति को प्राप्त होने के बाद आहार त्यागने का इच्छुक साधु वीर पुरुषों द्वारा आचरण किया गया, परम घोर/अति दुष्कर, प्रत्येक से वह आचरण नहीं किया जाये - ऐसे सम्यग्दर्शनादिक में विहार करने को प्राप्त होता हैअर्थात् सम्यग्दर्शनादि भावों में विचरण करता है ।
सदासुखदासजी