
इत्तिरियं सव्वमणं विधिणा वित्तिरिय अणुदिसाए दु ।
जहिदूण संकिलेसं भावेइ असंकिलेसेण॥182॥
सर्वसंघ अनुदिश1 को विधिपूर्वक साैंपे समाधिवांछक ।
संक्लेश भावों को तजकर निज को भाता समरस धार॥182॥
अन्वयार्थ : कितने काल सर्व गण को विधिपूर्वक समितिरूप प्रवृत्ति सौंपकर और संक्लेश भाव छोडकर असंक्लेश भावना भावे, ऐसा उपदेश करते हैं ।
सदासुखदासजी