
जावंतु केइ संगा उदीरया होति रागदोसाणं ।
ते वज्जिंतो जिणदि हु रागं दोसं च णिस्संगो॥183॥
राग-द्वेष की उदीरणा में हेतु परिग्रह त्याग करें ।
करके हो निःसंग साधु वे राग-द्वेष पर विजय वरें॥183॥
अन्वयार्थ : जितना कुछ संग/परिग्रह है, वे राग-द्वेष की उदीरणा करने वाले होते हैं, उनका त्याग करके परिग्रह रहित हुआ राग और द्वेष को प्रगट रूप से जीतते हैं ।
सदासुखदासजी