
कंदप्पदेवखिब्भिस अभिओगा आसुरी य सम्मोहा ।
एदा हु संकिलिट्ठा पंचविहा भावणा भणिदा॥184॥
देवगति कन्दर्प असुर अरु किल्विष अभियोग्य सम्मोह ।
बँधती पंच भेद भावों से संक्लिष्ट भावना कहो॥184॥
अन्वयार्थ : कंदर्प नामक देवों में उत्पन्न कराने वाली कंदर्प भावना है तथा किल्विष-देवों में उत्पन्न कराने वाली किल्विष भावना, ऐसी ही अभियोग देवों में उत्पन्न कराने वाली आभियोग्य भावना, असुरों में उत्पन्न कराने वाली आसुरी भावना, सम्मोह देवों में उत्पन्न कराने वाली सम्मोही भावना । ये पंच प्रकार की संक्लेशरूप भावनायें भगवान ने कही हैं ।
सदासुखदासजी