
कंदप्पकुक्कुआइय चलसीला णिच्चहासणकहो य ।
विब्भाविंतो य परं कंदप्पं भावणं कुणइ॥185॥
हास्य वचन अरु काय-कुचेष्टा से करता कुशील परिणाम ।
विस्मय कारक हास्य कथा में तत्पर यह कन्दर्प सुजान॥185॥
अन्वयार्थ : राग भाव की अधिकता सहित हास्य करता हुआ अन्य को देखकर भांडपने की काय से चेष्टा करना, वह कौत्कुच्य है । कंदर्प और कौत्कुच्य दोनों से जिसका शील चलायमान होता है और सदाकाल हास्य कथा कहने में उद्यमी हो तथा चेष्टा करे, जिससे अन्य लोगों को आश्चर्य उत्पन्न हो जाये । ऐसा पुरुष कंदर्प भावना को करता है ।
सदासुखदासजी