
मंताभिओगकोदुगभूदीयम्मं पउंजदे जो हु ।
इड्ढिरससादहेदुं अभिओगं भावणं कुणइ॥187॥
द्रव्यलाभ अरु मिष्ट अशन सुख या कौतुक दिखलाने को ।
मन्त्र प्रयोग करे, भभूत दे, आभियोग्य भावना कहो॥187॥
अन्वयार्थ : जो अपनी ऋद्धि, धन सम्पदा के लिये मिष्ट भोजन के लिये इन्द्रिय जनित सुख के लिये तथा और भी जगत में मान्यता, पूजा, सत्कार के लिये जो मंत्र-यंत्रादि करे, वह आभियोग कर्म है और वशीकरण करना कौतुक है, बालक आदि की रक्षा करने का मंत्र, वह भूतिकर्म है । इसप्रकार निंद्यकर्म करने वाला साधु आभियोग्य भावना को प्राप्त होता है ।
सदासुखदासजी