
एदाहिं भावणाहिं य विराधओ देवदुग्गदिं लहइ ।
तत्तो चुदो समाणो भमिहिदि भवसागरमणंतं॥190॥
रत्नत्रय से च्युत संक्लेश भावना से हो दुर्गति देव ।
और वहाँ से च्युत होकर वह भव-समुद्र में भ्रमे सदैव॥190॥
अन्वयार्थ : इस प्रकार पंच भावनाओं से जिसने मुनिधर्म की विराधना की है, ऐसा साधु कदाचित् परीषह सहन करने से तथा परिग्रह त्यागने से, तपश्चरण करने से अनशनादि अंगीकार करने से यदि देव होता है तो भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी देवों में दुर्गति को प्राप्त होता है । बाद में अभिमान सहित देवगति से चय कर अनंत संसार-समुद्र में त्रस-स्थावरादि पर्यायों में जन्म-मरण करता हुआ अनंत-अनंत काल पर्यंत परिभ्रमण करता है । इसलिए इन पंच भावनाओं का त्याग करके, छठी भावना अंगीकार करने की शिक्षा देते हैं ।
सदासुखदासजी