+ अब तपोभावना रहित के दोष दिखाते हैं- -
इंदियसुहसाउलओ घोरपरीसहपराजियपरस्सो ।
अकदपरियम्म कीवो मुज्झदि आराहणाकाले॥194॥
जो इन्द्रिय सुख में लम्पट अरु घोर परीषह से हारा ।
रत्नत्रय से विमुख दीन आराधन से विचलित होता॥194॥
अन्वयार्थ : जिसने तप का परिकर नहीं किया, ऐसा साधु इन्द्रियों के विषयों में सुख के स्वाद का लंपटी, वह क्षुधादि घोर परीषह के द्वारा तिरस्कार को प्राप्त होता है । इसलिए ही रत्नत्रय से पराङ्मुख होता हुआ और क्लीब (नपुंसक) अर्थात् विषयों के लिये दीन हुआ, आराधना के समय में मोह को प्राप्त होता है । विपरीत भावों को प्राप्त होता हुआ चारों आराधनाओं को बिगाडता है ।

  सदासुखदासजी