
एयत्तभावणाए ण कामभोगे गणे सरीरे वा ।
सज्जइ वेरग्गमणो फासेदि अणुत्तरं धम्मं॥205॥
काम-भोग में संघ में अथवा तन में नहिं आसक्ति करें ।
एकत्व भावना बल से मुनि सर्वाेत्कृष्ट चारित्र धरें॥205॥
अन्वयार्थ : एकत्वभावना का स्वरूप इसप्रकार जानना - जन्म, जरा, मरण, रोग, दरिद्र, वियोग, क्षुधा, तृषा इत्यादि कर्म के उदय से उत्पन्न दु:ख को मैं अकेला ही भोगता हूँ, कोई दु:ख को बाँटने के लिए समर्थ नहीं । इसलिए मेरा कोई स्वजन नहीं तो किससे राग करूँ? और मेरे उपार्जन किये गये कर्म के बिना कोई दु:ख देने में समर्थ नहीं, अत: किससे द्वेष करूँ? सुख-दु:ख को मैं अकेला ही भोगता हूँ । जन्मा, तब मेरे साथ कोइर् नहीं आया और मरण करके परलोक में जाऊँगा; तब शरीर, धन, पुत्र, कलत्रादि कोई मेरे साथ नहीं जायेंगे । इसलिए नरक में, तिर्यंच में, मनुष्य में, देव में - सभी पर्यायों में अकेला ही हॅूं; कोई मेरा साथी नहीं । अपने परिणामों से उत्पन्न जो कर्म, उसे भोगते और नवीन उत्पन्न करते हुए अनंत काल व्यतीत हो गया, किससे संबंध करूँ । अनादि काल से अकेला ही हूँ । परद्रव्यों में राग-द्वेष रूप संबंध करके अनंतानंत काल से परिभ्रमण किया, परंतु एकत्व भावना नहीं भाई । इसलिए अब निश्चय किया, मैं किसी का नहीं, कोई मेरा नहीं; अत: मैं अकेला शुद्ध ज्ञानरूप ही हूँ ।
ऐसे स्वरूप का एकत्व चिंतवन करना ही परम कल्याणकारी है । गाथा-सूत्र में उसी एकत्व भावना का गुण कहते हैं । जिस जीव को एकत्व भावना रुच गई, वह जीव एकत्व भावना द्वारा काम, भोग, गुण/संघ तथा शरीरादि परद्रव्यों में आसक्ति को प्राप्त नहीं होता, तब वैराग्य को प्राप्त होता हुआ सर्वोत्कृष्ट धर्म जो उत्कृष्ट सम्यक्चारित्र, उसे प्राप्त होता है ।
सदासुखदासजी