
सल्लेहणा य दुविहा अब्भंतरिया य बाहिरा चेव ।
अब्भंतरा कसायेसु बाहिरा होदि हु सरीरे॥211॥
बाह्य और अभ्यन्तर द्वयविध सल्लेखना कही जिन ने ।
अभ्यन्तर क्रोधादि कषायों की अरु बाह्य कही तन में॥211॥
अन्वयार्थ : सल्लेखना दो प्रकार की है- एक अभ्यंतर सल्लेखना तथा दूसरी बाह्य सल्लेखना । उसमें क्रोध, मान, माया, लोभादि कषायों को कृश करना, वह अभ्यंतर सल्लेखना है और शरीर को कृश करना, वह बाह्य सल्लेखना है ।
सदासुखदासजी