एगुत्तरसेढीए जावय कवलो वि होदि परिहीणो ।
ऊमोदरियतवो सो अद्धकवलमेव सिच्छं च॥217॥
इक दो ग्रास करे कम क्रमशः मात्र एक भी रहता शेष ।
अर्धग्रास या सिक्थे1 शेष हो कहते अवमौदर्य जिनेश॥217॥
अन्वयार्थ : उदरपूर्ण करने वाले आहार से एक ग्रास कम तथा दो ग्रास कम, तीन ग्रास, चार ग्रास, उनसे लगातार एक ग्रास पर्यंत एक-एक ग्रास हीन तथा अर्द्ध ग्रास एवं एक-एक सिक्थ/चावल मात्र ही लेना, वह अवमौदर्य तप है । यहाँ एक सिक्थ अथवा अर्द्ध ग्रास उपलक्षण पद है । इससे आहार की कमी जानना, दूसरी तरह एक सिक्थ आदि लेना कैसे बनेगा? अथवा किसी के एक ग्रास मात्र लेने का नियम था और हाथ में पहले ही एक चावल आ गया तो चावल मात्र ही लेवें, अधिक या दूसरा अनाज नहीं लेवें, ऐसे ही एक सिक्थ मात्र बनता है । इस अवमौदर्य से भोजन की लोलुपता घटती है और निद्रा पर विजय प्राप्त होती है । अनशनादि तप से उत्पन्न खेद का अभाव होता है । वात-पित्त-कफादि कृत उपद्रव नहीं होता है, समता भाव प्रगट होता है । काम पर विजय प्राप्त होती है, इन्द्रियों की लंपटता छूट जाती है, इस कारण अवमौदर्य तप ही परम उपकारक है ।

  सदासुखदासजी