
आणाभिकंखिणावज्जभीरुणा तवसमाधिकामेण ।
तावो जावज्जीवं णिज्जूढाओ पुरा चेव॥219॥
जिन आज्ञा में प्रीतिवन्त अरु पापभीरु तप अभिलाषी ।
सल्लेखना पूर्व ही इनका होता आजीवन त्यागी॥219॥
अन्वयार्थ : भगवान/सर्वज्ञ की आज्ञा पालने का इच्छुक, ऐसा भव्य सम्यग्दृष्टि तथा नरक-पतन के कारण जो पाप, उससे भयभीत तथा तप और समाधिमरण का इच्छुक पुरुष सल्लेखना काल के पहले ही यावज्जीव नवनीत, मदिरा, मांस और मधु का त्याग कर देता है ।
सदासुखदासजी