
गत्तापच्चागदं उज्जुवीहि गोमुत्तियं च पेलवियं ।
संबूकावट्टंपि य पदंगवीधी य गोयरिया॥223॥
गत्वाप्रत्यागत1 या सरल मार्ग2 अथवा गोमूत्र समान3 ।
शंखावर्त4 तथा सन्दूक5 पक्षी-पंक्ति6 गोचरी समान7॥223॥
अन्वयार्थ : वृत्तिपरिसंख्यान नामक तप को करने वाले अनेक प्रकार की प्रतिज्ञा करके भोजन को जाते हैं । यदि ऐसी मिलेगी तो भोजन करूँगा, अन्यथा नहीं करूँगा ।
उसमें मार्ग की प्रतिज्ञा को कहते हैं - जिस मार्ग में होकर नगर, ग्राम में भोजन को जाऊँगा, उसी मार्ग से आऊँगा । यदि वापस आते समय भिक्षा प्राप्त होगी तो ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं करूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा करते हैं और जो सीधे-सरल मार्ग से भोजन को जाऊँगा, उस सरल मार्ग में भोजन मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं करूँगा । गोमूत्रिका के आकार मोडा खाते हुए भ्रमण करते समय यदि भोजन मिलेगा तो करूँगा, अन्यथा नहीं । तथा पेलविय/ किन्हीं देशों में वस्त्र-सुवर्णादि रखने के लिये बाँस के सींके पत्रादि से चौकोर पिटारे बनते हैं, उसके आकार समान मार्ग में भिक्षा के लिये भ्रमण करूँगा । यदि चतुरस्र परिभ्रमण करते समय भोजन मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं । तथा संबूकावर्त जो जल-शुक्तिका के आकार परिभ्रमण करूँगा । यदि इस प्रकार मिलेगा तो भोजन ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं । पतंग-वीथी/सूर्य-गमन की तरह भिक्षा के लिए भ्रमण करूँगा । यदि ऐसे मार्ग में भोजन मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, अन्य प्रकार से नहीं करूँगा - ऐसे गोचरी/भिक्षा के लिये भ्रमण में प्रतिज्ञा करके भोजन करने का नियम, वह वृत्तिपरिसंख्यान है ।
1. जिस मार्ग से गए, उसी मार्ग से वापस लौटना 2. सीधे मार्ग से जाना 3. बैल के मूत्र त्यागते समय जैसा आकार
बनता है, उस तरह जाना 4. शंखों के आवर्त के समान भ्रमण करना 5. सन्दूक के समान चौकोर भ्रमण करना एवं इसप्रकार भ्रमण करते हुए आहार मिलने पर ग्रहण करूँगा - एेसी प्रतिज्ञा करना वृत्ति पपरसंख्यान है 6. पक्षियों की पंक्ति के समान भ्रमण करना 7. गोचरी भिक्षा के समान भ्रमण करना
सदासुखदासजी