
पत्तस्स दायगस्स व अवग्गहो बहुविहो ससत्तीए ।
इच्चेवमादिविधिणा णादव्वा वुत्तिपरिसंखा॥226॥
इसी पात्र से ही भोजन लूँ या एेसी स्त्री से लूँ ।
इत्यादिक अभिग्रह अनेक हैं वृत्ति-परिसंख्यान कहे॥226॥
अन्वयार्थ : सुवर्ण के पात्र में भोजन देने लायेंगे तो ग्रहण करूँगा, कांसा पात्र, पीतल के, ताम्र के, रूपा के, मिट्टी के पात्र में भोजन लायेंगे तो ग्रहण करूँगा; अन्य प्रकार के पात्र में ग्रहण नहीं करूँगा - इत्यादि रूप से पात्र का नियम करते हैं । बाल, वृद्ध, जवान, स्त्री या आभरण सहित या निराभरण इत्यादि दातारों का नियम करते हैं और भी अनेक प्रकार से अपनी शक्ति प्रमाण अनेक प्रकार के अभिप्राय पूर्वक भोजन ग्रहण करना - यह वृत्तिपरिसंख्यान नामक तप जानने योग्य है ।
सदासुखदासजी