
अणुसूरी पडिसूरी य उड्ढसूरी य तिरियसूरी य ।
उब्भागेण य गमणं पडिआगमणं च गंतूणं॥227॥
अनुसूरी16 प्रतिसूरी17 एवं ऊर्ध्वसूरि18 तिर्यक् सूरी
अन्य ग्राम में गमन तथा वापस आना तन-क्लेश कहा॥227॥
अन्वयार्थ : सूर्य के सन्मुख होकर गमन करना तथा सूर्य पीछे हो, तब गमन करना या सूर्य मस्तक के ऊपर आ जाये, तब गमन करना या जब सूर्य तिरछी दिशा में हो, तब गमन करना या एक ग्राम से दूसरे ग्राम की ओर गमन करना तथा गमन करके आगमन करना - यह गमन के स्वेद जनित काय-क्लेश तप है ।
सदासुखदासजी