वीरासणं च दंडा य उड्ढसाई य लगडसाई य ।
उत्ताणो मच्छिय एगपाससाई य मडयसाई य॥230॥
वीरासन34 अरु दण्डशयन35 अरु ऊर्ध्वशयन36 अरु लगणशयन37 ।
उत्तानशयन38 अवमस्तक39 एवं एकपार्श्व40 अरु मृतकशयन41॥230॥
अन्वयार्थ : वीरासन तथा दंडासन में दंड की तरह शरीर को लम्बा करके शयन करना । ऊर्ध्वासन तथा संकुचित गात्र/शरीर को संकुचित करके शयन करना, वह लकुटशाई है । उत्तान-शयन तथा एक करवट से शयन करना, इत्यादि शयन के द्वारा काय-क्लेश है ।

  सदासुखदासजी