
अब्भावगाससयणं अणिठ्ठुवणा अकंडगुं चेव ।
तणफलयसिलाभूमी सेज्जा तह केसलोचे य॥231॥
निरावरण आकाश शयन हो और निष्ठिवन42 नहिं करना ।
तथा अकण्डूयन43 तृणशय्या44 और केशलुंचन करना॥231॥
अन्वयार्थ : बाह्य निरावरण प्रदेश में शयन करना, जिसके ऊपर कोई छाया नहीं, वह अभ्राव -आकाश शयन है । निष्ठीवन/खँखार/कफ/थूक कर नहीं डालना, वह अनिष्ठीवन है । खुजली शरीर में आवे, तब नहीं खुजलाना, वह अकंडुक शयन है । और तृण, काष्ठ की फडि/फलक तथा पाषाणमय शिला, कोरी भूमि - इन चार प्रकार के संस्तरों पर शयन करना और केशों का लोंच करना इत्यादि काय-क्लेश तप है ।
सदासुखदासजी