+ आगे विविक्तशयनाशन तप का निरूपण करते हैं- -
जत्थ ण सोत्तिग अत्थि दु सद्दरसरूवगंधफासेहिं ।
सज्झायज्झाणवाघादो वा वसधी विवित्ता सा॥233॥
जहाँ न हों रस-रूप-गन्ध-स्पर्श-शब्द में अशुभ विकार ।
जानो वसति विविक्त उसे स्वाध्याय ध्यान में नहिं व्याघात॥233॥
अन्वयार्थ : जिस वसतिका में शब्द, रस, गंध, स्पर्श से अशुभ परिणाम न हों और स्वाध्याय का, शुभध्यान का घात न हो, वह विविक्त वसतिका है ।

  सदासुखदासजी