
उग्गमउप्पादणएसणाविसुद्धाए अकिरियाए दु ।
वसदि असंसत्ताए णिप्पाहुडियाए सेज्जाए॥235॥
उद्गम उत्पादन एषणा दोष रहित दुःप्रमार्जन हीन ।
जीव रहित, शय्या विहीन वसति में यति निवास करें॥235॥
अन्वयार्थ : जैसे आहार छियालीस दोषरहित शुद्ध हो, उसे ग्रहण करते हैं, वैसे ही जैन के दिगम्बर मुनि छियालीस दोष रहित वसतिका ग्रहण करते हैं । वह वसतिका सोलह प्रकार के उद्गम दोष तथा सोलह प्रकार के ही उत्पादन दोष, दश प्रकार के एषणा दोष तथा संयोजना, अप्रमाण, धूम और अंगार - ऐसे छियालीस दोष रहित वसतिका में कुछ काल तक रहते हैं । उन छियालीस दोषों से भिन्न एक अध:कर्म दोष है । इसके होने पर साधुपना ही भ्रष्ट/ नष्ट हो जाता है, उसे कहते हैं ।
वसतिका के निमित्त से वृक्ष छेदना/काटना, पाषाण का भेदना, छेदना और लाना तथा ईंट पकाना, भूमि खोदना, पाषाण, बालू, रेत से गड्ढा भरना, पृथ्वी कूटना/खोदना, कादा करना/गार मचाना, अग्नि से लोहे को तपाना, लोहे की कीलियाँ बनाना, करोंतों से काष्ठपाषाण चीरना, फरसी से छेदना, बसूलों से छीलना - इत्यादि व्यापार करके छहकाय के जीवों को बाधा देकर स्वयं वसतिका उत्पन्न करना/बनाना तथा अन्य से कराना या अन्य करें, उसको भला/अच्छा जानना - यह महानिंद्य अध:कर्म नामक दोष मुनिधर्म का मूल से ही नाश करने वाला है, वह त्यागने योग्य है ।
सदासुखदासजी