इय सल्लीणमुवगदो सुहप्पवत्तेहिं तित्थजोएहिं ।
पंचसमिदो तिगुत्तो आदठ्ठपरायणो होदि॥238॥
पंच समिति त्रय गुप्तियुक्त यति विविक्त वसति में वास करें ।
सुखपूर्वक तप और ध्यान से आत्म-कार्य में तत्पर हों॥238॥
अन्वयार्थ : इस प्रकार सुख से प्रवर्तते जो योग/तप या ध्यान, उनके द्वारा सल्लीणं अर्थात् एकात्मता/तन्मयता को प्राप्त हुए तथा पंच समिति एवं तीन गुप्ति के धारक साधु आत्मार्थ/ आत्मा का प्रयोजन-हित, उसमें तत्पर होते हैं ।

  सदासुखदासजी