+ आगे निर्जरा के अर्थी साधु को ऐसा तप-आचरण करना योग्य है, ऐसा कहते हैं- -
सो णाम बाहिरतवो जेण मणो दुक्कडं ण उट्ठेदि ।
जेण य सड्ढा जायदि जेण य जोगा ण हायंति॥241॥
जिससे मन में पाप नहीं हो तप में हो श्रद्धा उत्पन्न ।
व्रत विशेष भी हीन न होवें वही बाह्य-तप है सम्यक्॥241॥
अन्वयार्थ : बाह्य तप तो वे ही प्रशंसा योग्य हैं, जिनसे मन पापों में उद्यमी न हो और जिस तप से धर्म में तथा अभ्यंतर तप में श्रद्धा दृढ होती जाये । जिस तप को करने से शुभ ध्यान वा तप में उत्साह न घटे, वह तप प्रशंसा योग्य है - आचरण करने योग्य है ।

  सदासुखदासजी