
बाहिरतवेण होदि हु सव्वा सुहसीलदा परिच्चत्ता ।
सल्लिहिदं च सरीरं ठविदो अप्पा य संवेगे॥242॥
बाह्य-तपों के द्वारा होता सुखी वृत्तियों1 का परित्याग ।
तन कृश होता अरु आतम में बढ़ते संवेगादिक भाव2॥242॥
अन्वयार्थ : बाह्य तप से सुखिया रहने के स्वभाव का त्याग होता है और शरीर कृश होता है । आत्मा संसार, देह, भोगों से विरक्तता रूप संवेग में स्थापित होता है । अत: जिसके दैहिक सुख में राग हो, वह आत्मिक सुख के ज्ञान से बहिर्मुख हुआ रागभाव से बंध करता है । देह में अनुरागियों को अनशनादि तप नहीं होतेऔर तप के प्रभाव से शरीर कृश हो जाता है तो ममता घट जाती है, वात-पित्त-कफादि रोग उपद्रव नहीं करते, परीषह सहने में समर्थ होते
सदासुखदासजी