दंताणि इंदियाणि य समाधिजोगा य फासिदा होंति ।
अणिगूहिदवीरियओ जीविदतण्हा य वोच्छिण्णा॥243॥
इन्द्रिय होती क्षीण और रत्नत्रय होता है परिपुष्ट ।
अपनी शक्ति नहीं छिपाये जीने की तृष्णा हो नष्ट॥243॥
अन्वयार्थ : बाह्य तप से पाँचों इन्द्रियाँ विषयों में दौडने से रुक जाती हैं और रत्नत्रय से तन्मयता रूप समाधि साथ संबंध अंगीकार होता है । अपना वीर्य/पराक्रम नहीं छिपाया जाता है । इसलिए जो अपनी शक्ति प्रगट करेगा, वही बाह्यतप में उद्यमी होगा तथा जीने की तृष्णा का अभाव होता है । अत: जिसे पर्याय में अति-लंपटता है, उसके तप नहीं होता है ।

  सदासुखदासजी