दुक्खं च भाविदं होदि अप्पडिबद्धो य देहरससुक्खे ।
मुसमूरिया कसाया विसएसु अणायरो होदि॥244॥
असंक्लेश दुख सहने से हो अप्रतिबद्ध देह-सुख में ।
हो कषाय का मर्दन अरु, आसक्त न होता विषयों में॥244॥
अन्वयार्थ : तप करने से क्षुधा, तृषादि, दु:ख भावित/भोगे हुए होते हैं । इससे मरण काल में रोग जनित वेदनादि से उत्पन्न दु:ख के कारण धर्म से चलायमान नहीं होता । पूर्व में अनेक बार स्व-वश होकर तपश्चरण में क्षुधा-तृषादि से उत्पन्न दु:ख को समभावों से जिस पुरुष ने भोग लिया है, वह अंतकाल में कर्मोदय से आये हुए दु:ख में कायरता को प्राप्त नहीं होता । निश्चल ज्ञान-ध्यान में सावधान हो, तब समभाव के प्रभाव से बहुत निर्जरा होती है और देह का सुख तथा इन्द्रिय विषयों के सुख में प्रतिबद्धता अर्थात् आसक्ति को प्राप्त नहीं होता । कषायें उन्मदित हो जाती हैं, नष्ट होती हैं, विषयों में अनादर होता है । अत: भोजन का अलाभ हो/न मिले अथवा असुहावना भोजन मिले, तब क्रोध उत्पन्न होता है और अधिक लाभ हो या रसवान भोजन का लाभ हो, तब स्वयं को अभिमान हो जाये कि हम ऋद्धिमान हैं । जहाँ जाते हैं, वहाँ बहुत आदर सहित लाभ होता है तथा जैसे मैं भिक्षा को जाता हूँ, वैसे ये अन्य लोग नहीं जावें, इत्यादि में मायाचार होता है और भोजन का लाभ हो या अति रसवान भोजन मिले, तब आसक्ति/लोभकषाय होती है अथवा भोजन के अलाभ में क्रोध उत्पन्न हो । लाभ

  सदासुखदासजी