कदजोगदाददमणं आहारणिरासदा अगिद्धी य ।
लाभालाभे समदा तितिक्खणं वंभचेरस्स॥245॥
कृतयोगी1 को आत्मदमन2 हो आशा-गृद्धि न भोजन में ।
लाभ-अलाभ में समता रहती ब्रह्मचर्य में दृढ़ता हो॥245॥
अन्वयार्थ : बाह्य तप के द्वारा सर्व त्याग के बाद होने योग्य आहार त्याग रूप सल्लेखना होती है । आहार करने में जो सुख, उसके त्याग से आत्मा का दमन/वशीभूतपना होता है । दिनप्रतिदिन अनशन, रस परित्यागादि तप करने से आहार में निराशता अर्थात् वांछा रहितपना प्रगट होता है । आहार में गृद्धता/लंपटता का अभाव होता है । अत: भोजन के लंपटी को आहार त्यागादि तप नहीं होते । आहार के लाभ में हर्ष और अलाभ में विषाद के अभाव रूप समता होती है; इसलिए जो स्वयं ही मिले को त्यागे, जिससे पहले घर के नहीं देवें तो उससे मन नहीं बिगडता और ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा भी होती है । जो आहार का ही त्यागी है उसे अन्य विषयों का अनुराग स्वयमेव छूट जाता है, वीर्यादि नष्ट हो जाते हैं; अत: ब्रह्मचर्य की रक्षा भी तप से ही होती है ।

  सदासुखदासजी