
णिद्दाजओ य दढझाणदा विमुत्ती य दप्पणिग्घादो ।
सज्झायजोगणिव्विग्घदा य सुहदुक्खसमदा य॥246॥
निद्राजयी और दृढ़-ध्यानी हो विमुक्ति3 अरु दर्प-विघात ।
स्वाध्याय निर्विघ्न करे वह सुख-दुःख में समता धरता॥246॥
अन्वयार्थ : नित्य ही भोजन करने वाले को वा बहुत भोजन करने वाले को वा रसों सहित भोजन करने वाले को वा पवन रहित, उपद्रव रहित सुखरूप स्पर्श सहित स्थान में शयन करने वाले को बहुत निद्रा उत्पन्न होती है और निद्रा से परवश होता है । इसलिए निद्रा को जीतने में ही परम कल्याण है तथा निद्रा के जीतने से ही मुनिधर्म होता है । अत: निद्रा को जीतना तपश्चरण से ही होता है । ध्यान में दृढता भी तपश्चरण के बिना नहीं होती । अत: जिसने कभी
सदासुखदासजी