
आदा कुल गणो पवयणं च सोभाविदं हवदि सव्वं ।
अलसत्तणं च विजढं कम्मं च विणिद्धुयं होदि॥247॥
अपना कुल गण शिष्य शृंखला बाह्य-तपों से शोभित हो ।
आलस भी हो नष्ट कर्म की हो विशेष निर्जरा अहो॥247॥
अन्वयार्थ : बाह्य तप के प्रभाव से अपना आत्मा तथा कुल, संघ और प्रवचन अर्थात् धर्म शोभा/प्रशंसा को प्राप्त होता है, आलस्य का त्याग होता है और संसार का कारण कर्म निर्मूल हो जाता है ।
सदासुखदासजी