अणुपुव्वेणाहारं संवट्टंतो य सल्लिहइ देहं ।
दिवसुग्गहिएण तवेण चावि सल्लेहणं कुणइ॥252॥
क्रम से भोजन न्यून करें मुनि तन को करता क्षीण अहो ।
एक-एक दिन करंे विविध तप इसप्रकार सल्लेखन हो॥252॥
अन्वयार्थ : अनुक्रम से आहार को संवररूप/कम-कम करने वाले साधु देह को कृश करते हैं और दिन-प्रतिदिन ग्रहण किया गया जो तप, उसके द्वारा सल्लेखना करते हैं । भावार्थ - साधु किसी दिन अनशन, किसी दिन अवमौदर्य, किसी दिन रस परित्याग इत्यादि तप के द्वारा शरीर को कृश करते हैं ।

  सदासुखदासजी