
विविहाहिं एसणाहिं य अवग्गहेहिं विविहेहिं उग्गेहिं ।
संजममविराहिंतो जहाबलं सल्लिहइ देहं॥253॥
विविध प्रकार उग्र नियमों से यती ग्रहण करते आहार ।
द्वय-विध संयम रखें सुरक्षित शक्ति प्रमाण करें कृशकाय॥253॥
अन्वयार्थ : अनेक प्रकार के उत्कृष्ट वृत्तिपरिसंख्यानादि के द्वारा संयम की विराधना नहीं करने वाले साधु यथाशक्ति देह को कृश करते हैं ।
सदासुखदासजी